Tuesday, June 22, 2010

तेरी बाहें

मद्धम मद्धम सी रौशनी है

मैं खीचा चला जा रहा हूँ कहीं

महफ़िल कहीं और ही जमी है

नींद है हलकी हलकी सी पलकों में

आँखें भी खुली है कम कम

सोचता हूँ रात यहीं रुक जाऊं

फिर सोंचता हूँ, काश सुबह हो हमदम


तेरी बाहों में जहाँ कुछ ऐसा लगता है

जानता हूँ झूट बोल रहा है

मगर वोह धोकेबाज़ भी सचा लगता है

तेरी बाहों में ज़िन्दगी जीने का

हर बार नया चस्का लगता है


तेरी बाहों में ज़िन्दगी जीने का

हर बार नया चस्का लगता है


सुबह हसीन लगने लगती है

वीरान गलियों में

एक अजीब सी बस्ती लगने लगती है


त्राफ्फिक का शोर संगीत लगने लगता है

माकन मालिक की गाली भी

गुलज़ार का लिखा गीत लगने लगता है

तेरी बाहों में ज़िन्दगी जीने का

हर बार नया चस्का लगता है


तेरी बाहों में ज़िन्दगी जीने का

हर बार नया चस्का लगता है


ऐसी रात फिर आयेगी

ओढले मुझे यहाँ

ऐसी महफ़िल फिर जमने पायेगी

सीमेटले मुझे यहाँ

छुडाले मुझे मेरी ही गिरफ्त से

इस से पहले की मुझे धूंदले जहाँ

इन गुज़रते पलों के बीच

गुज़रता हर पल अब मुझे कम लगता है

तेरी बाहों में ज़िन्दगी जीने का

हर बार नया चस्का लगता है


तेरी बाहों में ज़िन्दगी जीने का

हर बार नया चस्का लगता है

1 comment:

payal.k said...

I really really love this poem :)
My fav lines
छुडाले मुझे मेरी ही गिरफ्त से
इस से पहले की मुझे धूंदले जहाँ…
इन गुज़रते पलों के बीच
गुज़रता हर पल अब मुझे कम लगता है